Sunday, July 1, 2018

ब्लॉग: होशियार! ज़िल्लेसुबहानी त्रिवेंद्र सिंह रावत पधार रहे हैं

जिस तरह 'मुग़ले आज़म' फ़िल्म में बादशाह-ए-हिंदुस्तान ज़िल्लेसुबहानी जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर बने पृथ्वीराज कपूर ने भरे दरबार में अनारकली नाम की क़नीज़ को दीवार में ज़िंदा चिनवा देने का हुक्म फ़रमाया था, उत्तराखंड के ज़िल्लेसुबहानी त्रिवेंद्र रावत ने ठीक उसी अंदाज़ में एक अध्यापिका के लिए भरे दरबार में ऐलान किया — सस्पेंड करो इसे, कस्टडी में लो इसको!!
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि अनारकली को दीवार में चिनवाने का दृश्य सोलहवीं शताब्दी के अकबरी दरबार का था — और उसकी ऐतिहासिकता पर भी शक है — मगर उत्तराखंड के नए 'मुग़ल' त्रिवेंद्र सिंह रावत का हुक्म 21 वीं शताब्दी के दूसरे दशक में हमारी-आपकी आँखों के सामने जारी किया गया. पर अंदाज़ वही मुग़लिया था — अपने अफ़सरों के साथ अलग आसन पर बैठे मुख्यमंत्री और उनसे काफ़ी सुरक्षित फ़ासले पर खड़े किए गए फ़रियादी.
हुक्मरान और फ़रियादी रियाया के बीच का ये फ़ासला किसी सामंत के दरबार जैसा था. दुनिया भर के खुले और लोकतंत्रिक समाजों में जनता और उसके चुने हुए जन प्रतिनिधियों के बीच की नज़दीकी और खुलापन वहाँ नहीं था. वहाँ हॉल में एक ओर फ़रियादी थे तो दूसरे कोने में उनका भाग्यविधाता. उन्हीं फ़रियादियों में उत्तरा पंत बहुगुणा भी खड़ी थीं.
वो एक विधवा अध्यापिका हैं जो पिछले 25 बरस से उत्तराखंड के दुर्गम ज़िले उत्तरकाशी के एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. उनका कहना है कि पिछले 25 साल से किसी ने उनकी सुध नहीं ली और न ही उनका तबादला सुगम क्षेत्र में किया गया. उन्होंने भी कभी एतराज़ नहीं किया क्योंकि उनके पति जीवित थे और बच्चों की देखभाल अच्छी तरह से हो जाती थी.
पिछले साल उत्तरा पंत के पति की मृत्यु हो गई और उनके सामने अपने बच्चों की परवरिश और पढ़ाई लिखाई की चुनौती पैदा हो गई. राज्य के हज़ारों सरकारी कर्मचारियों की तरह उत्तरा को त्रिवेंद्र रावत की सरकार से उम्मीद थी कि अब तो उनकी सुनवाई होगी और उनका तबादला देहरादून कर दिया जाएगा जहाँ वो अपने बच्चों के साथ रह कर उनकी परवरिश कर सकें. जब ऐसा नहीं हुआ तो वो विद्रोह पर उतारू हो गईं और पिछले लगभग एक साल से काम पर भी नहीं गई हैं.
जैसे जनता दरबार भारतीय गणतंत्र के मंत्री और मुख्यमंत्री लगाते हैं वैसे ही सुलतान और मुग़ल बादशाह भी अपनी प्रजा को दरबार में आकर बादशाह के सामने अपनी फ़रियाद रखने की छूट देते थे. लेकिन तब प्रजा को भी मालूम होता था और दरबारियों को भी कि अगर कोई बात बादशाह को खटक गई तो सीधे तोप से उड़ाने या हाथी के पैर तले कुचलवाने का हुक्म दे दिया जाएगा और फिर सिर्फ़ अल्लाह मियाँ के यहाँ ही फ़रियाद की जा सकती थी.

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